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वै॒श्वा॒न॒रो न॑ऽऊ॒तय॒ऽआ प्र या॑तु परा॒वतः॑। अ॒ग्निर्नः॑ सुष्टु॒तीरुप॑ ॥७२ ॥

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

वै॒श्वा॒न॒रः। नः॒। ऊ॒तये॑। आ। प्र। या॒तु॒। प॒रा॒वत॒ इति॑ परा॒ऽवतः॑। अ॒ग्निः। नः॒। सु॒ष्टु॒तीः। सु॒स्तु॒तीरिति॑ सुऽस्तु॒तीः। उप॑ ॥७२ ॥

यजुर्वेद » अध्याय:18» मन्त्र:72


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हिन्दी - स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे सेना सभा के पति ! जैसे (वैश्वानरः) सम्पूर्ण नरों में विराजमान (अग्निः) सूर्यरूप अग्नि (परावतः) दूरदेशस्थ सब पदार्थों को प्राप्त होता है वैसे आप (ऊतये) रक्षादि के लिये (नः) हमारे समीप (आ, प्र, (यातु) अच्छे प्रकार प्राप्त हूजिये, जैसे बिजुली सब में व्यापक होकर समीपस्थ रहती है, वैसे (नः) हमारी (सुष्टुतीः) उत्तम स्तुतियों को (उप) अच्छे प्रकार सुनिये ॥७२ ॥
भावार्थभाषाः - इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। जो पुरुष सूर्य्य के समान दूरस्थ होकर भी न्याय से सब व्यवहारों को प्रकाशित कर देता है और जैसे दूरस्थ सत्यगुणों से युक्त सत्पुरुष प्रशंसित होता है, वैसे ही राजपुरुषों को होना चाहिये ॥७२ ॥
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संस्कृत - स्वामी दयानन्द सरस्वती

पुनस्तमेव विषयमाह ॥

अन्वय:

(वैश्वानरः) विश्वेषु नरेषु यो राजते स एव (नः) अस्माकम् (ऊतये) रक्षाद्याय (आ) (प्र) (यातु) प्राप्नोतु (परावतः) दूरदेशात् (अग्निः) सूर्यः (नः) अस्माकम् (सुष्टुतीः) या शोभनाः स्तुतयस्ताः (उप) ॥७२ ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे सेनेश सभेश ! यथा वैश्वानरोऽग्निः सूर्यः परावतः सर्वान् पदार्थान् प्राप्नोति, तथा भवानूतये न आ प्र यातु। यथाऽग्निर्विद्युत्संहितास्ति, तथा त्वं नः सुष्टुतीरुपशृणु ॥७२ ॥
भावार्थभाषाः - अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। यः सूर्यवद् दूरस्थोऽपि न्यायेन सर्वान् पदार्थान् प्रकाशयति, यथा च दूरस्थोऽपि सद्गुणाढ्यो जनः प्रशस्यते, तथा राजपुरुषैर्भवितव्यम् ॥७२ ॥
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मराठी - माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. जो पुरुष सूर्याप्रमाणे दूर राहूनही नियमाने सर्व व्यवहार न्यायाने पार पाडतो आणि सत्य गुणांनीयुक्त असलेला पुरुष दूर असला तरी प्रशंसनीय ठरतो, तसेच राजपुरुषांनीही वागावे.